वह जब भी अपने खींसे से
बटुआ निकालता है
यादें निकाल लेता है
यादें तस्वीर में नहीं होती कभी
वह छिपी होती हैं
हमारे भीतर ही कहीं, पहले से
बटुए का खुलना
हमारी यादों का उजागर हो जाना है
हमसे |
जब खुलता है तब चलता है
जीता है
और फिर पड़ा रहता है
किसी कोने में
‘जीवन’, एक राही की जेब में रखा बटुआ है |
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