रात बंज़र बेबस सी कतराती आई
मैंने दिल्लगी की
मैंने 'मुँह की खाई'
गुणा-गणित करती थी वो अक्सर, मैंने उसमें भी पहचान बनाई
एक ग़फ़लत में मैंने पल को हारा
उसको हारा
अब सपनों की क्या बात करूँ?
मैंने दिन में आग लगाई
वो लिए बगल में बैठी रहती दरार के किस्से
कहती सबसे न कहती प्यार मेरे हिस्से
मैंने आँखों से उस पार देखा था, 'खिड़की' थी घर में उसके
उसने कहीं, यार देखा था
मैंने दिल्लगी की
मैंने 'मुँह की खाई'
गुणा-गणित करती थी वो अक्सर, मैंने उसमें भी पहचान बनाई
एक ग़फ़लत में मैंने पल को हारा
उसको हारा
अब सपनों की क्या बात करूँ?
मैंने दिन में आग लगाई
वो लिए बगल में बैठी रहती दरार के किस्से
कहती सबसे न कहती प्यार मेरे हिस्से
मैंने आँखों से उस पार देखा था, 'खिड़की' थी घर में उसके
उसने कहीं, यार देखा था
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