Tuesday 24 March 2020

दरार

रात बंज़र बेबस सी कतराती आई
मैंने दिल्लगी की
मैंने 'मुँह की खाई'

गुणा-गणित करती थी वो अक्सर, मैंने उसमें भी पहचान बनाई
एक ग़फ़लत में मैंने पल को हारा
उसको हारा
अब सपनों की क्या बात करूँ?
मैंने दिन में आग लगाई

वो लिए बगल में बैठी रहती दरार के किस्से
कहती सबसे न कहती प्यार मेरे हिस्से

मैंने आँखों से उस पार देखा था, 'खिड़की' थी घर में उसके
उसने कहीं, यार देखा था

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