कितने ही पन्नो में
न जाने कितने कबूतर उड़े
उन दिनों में कुछ बात थी
कागज़ कबूतर था
स्याही संदेस और नज़रें उड़ान थीं
न आँखें थीं, न आँसू थे
फिर भी, याद थी मुलाक़ात थी
एक गुमठी पे खड़े होकर
एक गुमठी को तांकते थे
आशिक़ो के मोहल्ले में हमारी बात थी
जो कबूतर आकर बैठता था तुम्हारी खिड़की पर
उसे सुन्ना था
वो मेरी ही तो आवाज़ थी
न जाने कितने कबूतर उड़े
उन दिनों में कुछ बात थी
कागज़ कबूतर था
स्याही संदेस और नज़रें उड़ान थीं
न आँखें थीं, न आँसू थे
फिर भी, याद थी मुलाक़ात थी
एक गुमठी पे खड़े होकर
एक गुमठी को तांकते थे
आशिक़ो के मोहल्ले में हमारी बात थी
जो कबूतर आकर बैठता था तुम्हारी खिड़की पर
उसे सुन्ना था
वो मेरी ही तो आवाज़ थी