बन पंची मन विचरण को तरसे
नीले से इस अंबर में
महीन तीलियों से टकराकर
रह गया एक पिंजर में
छटा ये नीले अंबर की हर दम पंछी से कह जाती
ए पंछी तू बाहर निकल
विचरण कर ले इस अंबर में
दाना पानी पाता हर दिन
लेकिन उसको कुछ न भाता
विचरण करने को अंबर में, वह प्रतिक्षण छटपटाता
खुला फाटक पिंजर का पाकर
मन ही मन बहुत हर्षाया
पंख पसार उड़ा अंबर में
अपने जीवन का सुख पाया |
No comments:
Post a Comment