काश...! मुझे कोई समझे
पर किसी सिद्धांत की तरह नहीं
जज़्बात की तरह
मैंने जब उसकी बेबसी पर कहा-
‘मैं समझ सकता हूँ |’
वह कहती है... ‘काश समझ पाते
कोई नहीं समझ सकता’
सच ही तो कहती है
मैं जिसे प्रेम समझता रहा
वो एक बेनाम रिश्ता है हमारे बीच
पर मैं उलझन में हूँ
प्रेम के अलावा भी
क्या कोई बेनाम रिश्ता होता है?
और अगर एक डोर हमें बांधती है
तो क्यों हम एक दूसरे को समझ नहीं पाते?
मुझे लगता है कि मैंने
नक़ाब ओढ़ा है
पर वह
भी है एक नकाबपोश
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