एक बेघर के लिए हर रोज़
मैं अपना घर ख़ाली छोड़ जाऊंगा
शाम को घर से निकलूंगा
और जब भी लौटूंगा
सुबह में ढलकर आऊंगा
वक़्त - बेवक्त आते हैं अपने घर
मैं ऐसे लोगों में मिल जाऊँगा
परिंदे जो नहीं लौटते अपने घर
मैं परिंदा बनकर उनके घर जाऊंगा
उनके परिवार से अपने परिवार की तरह मिलूंगा
और फिर अगली मुलाक़ात के लिए
उड़ जाऊंगा
मैं अपनी ही दुनिया में
एक बेढंगी सी – ही सही
पर अपनी दुनिया बनाऊंगा
जहाँ जब चाहे आवारों सा आऊंगा
बंजारों सा जाऊंगा |
No comments:
Post a Comment