Friday 16 February 2018

गिनती

एक दिन जब मैं कविता लिखने बैठा 
तो सोचा 
शुरू से शुरू करता हूँ 
जैसे गिनती 
एक से शुरू होती है और सौ पर ख़त्म 

पर मुझे कविता का 'एक' मालूम न था
मैंने तमाम लोगों को खोजा 
अनगिनत किताबें पड़ी 
पर कविता का 'एक' हाथ न लगा 
और शुरू से शुरू करने कि तलाश 
कभी ख़त्म न हो सकी 

मैं चाहता था कि कविता को 
गिनती की तरह पड़ा जाए 
ताकि जीवन 'एक' से शुरू होकर 'सौ' पर ख़त्म न हो 

जीवन कहीं से भी शुरू किया जाए 
कहीं भी ख़त्म कर दिया जाए 
और तमाम गणनाओं को नेश्तानाबूत कर दिया जाए 
जीवन में जीवन शेष रहे 
 गिनती में न ढल जाए 

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