एक दिन जब मैं कविता लिखने बैठा
तो सोचा
शुरू से शुरू करता हूँ
जैसे गिनती
एक से शुरू होती है और सौ पर ख़त्म
पर मुझे कविता का 'एक' मालूम न था
मैंने तमाम लोगों को खोजा
अनगिनत किताबें पड़ी
पर कविता का 'एक' हाथ न लगा
और शुरू से शुरू करने कि तलाश
कभी ख़त्म न हो सकी
मैं चाहता था कि कविता को
गिनती की तरह पड़ा जाए
ताकि जीवन 'एक' से शुरू होकर 'सौ' पर ख़त्म न हो
जीवन कहीं से भी शुरू किया जाए
कहीं भी ख़त्म कर दिया जाए
और तमाम गणनाओं को नेश्तानाबूत कर दिया जाए
जीवन में जीवन शेष रहे
गिनती में न ढल जाए
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