चलो की अब चला जाए
पहाड़ की ऊँची चोटी पर
और अपनी ख़ुशी के लिए
जोर से चिल्लाया जाए
अपने अकेले कमरे में
कंबल के भीतर छुपकर
खूब रोया जाए
और कर ली जाएँ तमाम हसरतें पूरी
कि हमारे भीतर कुछ भी
शेष न रह जाए
अगर कुछ बचे - कुछ भी
प्यार, नफरत, दोस्ती
तो क्यों न बाँट लिया जाए
और खर्च किया जाए
अगर शेष बची है
खुलकर जीने की इच्छाह
तो क्यों न?
परिंदे में तब्दील हुआ जाए
चलो की अब चला जाए |
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