Sunday 10 December 2017

शाम का सपना

पानी का छोर दिख नहीं रहा 
तो मान लिया जाए 
कि मैं समुद्र को देख रहा हूँ तालाब में 

अगर मैं समुद्र पर पैर रखकर खड़ा हो जाऊं
तो ज़ाहिर है की सूरज को नीचे से छू लूँगा 
शायद, वह मेरी हथेली पर आ जाए

अभी अभी जो नाव गुजरी है 
उसने ठहराव को झुठला दिया है समुद्र के 
जो अब मेरी धरती है 

फिर भी, बेहिचक खड़ा रहूँगा 
धरती पर
इस तरह दो पहचान एक में तब्दील हो जाएंगी 

शाम का ओझल होना अच्छा लगता है 
सपने का नहीं 
फिर भी मैं सूरज को ढलते देखता हूँ 

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