Sunday 19 April 2020

पैग़ाम

न चाहें, दिल पे कुछ बातें लगती हैं 
अतीत की यादें महबूबा की बाहें लगती हैं 

ख़्वाब बिछे थे बिस्तर पर 
रातें सपने ले आईं 
किस्सा है उस रात का ये 
मयखाने में जो रात बिताई 

जब कदम बढ़ाए मैंने, क्यों उसने पीछे चाल चली?
और भला क्या होती बात मुझको उसकी बात खली 

खलल किस्म कोई भी हो 
बीच प्यार के पड़ती है 
ग़र वो तेरी, मेरी है 
कहाँ कभी फिर भरती है 

तिलिस्म अतीत का दिन एक खाक हो जायेगा 
कोई रास्ता नहीं आता दिल तक, ग़र रूठ जाएगा | 

No comments:

Post a Comment