Friday 22 May 2020

मज़दूर

चल के पहुचूँगा खाने में
सोच के यह भी तो इक खाना है
रुक जाता हूँ
मैं एक मोहरा चलने को आगे-पीछे, दाएँ- बाएँ
पाँव बढ़ाता हूँ

बोल दे तो ये आलम रंग बदलता है
कितना फ़र्क़ है
कहने को हमसा एक खाना चलता है
उस हुक्मरान का हर चाल - चलन
उसको सब आज़ादी
पैसा जिसपे आख़िर इंसानियत क्यों हो उसकी अधिकारी?
एक जो सचमुच है अधिकारी
चले तिरछी चाल, काहे की ज़िम्मेदारी
फिर आता है वो अपनी चाल का मदमस्त हाथी

ठीक सामने दुश्मन सेना है इनके
ठीक सामने मेरे मुझसा एक दुश्मन मोहरा है
पहली बार मुझको मेरे जैसा कोई दिखा था
वो भी कर सकेगा कभी तरफ़दारी 

बीज जुगाड़ें
खेत में डालें
सीचें
धूप भी रोंदे, खलिहान लगाएं
फसल उगाएँ
ज़रूरत के सौ रूप तुम्हारी
हमपे है चलने को
इक खाना
हम हैं जो करते हैं तरफ़दारी

कहते सब हैं
हमें भी
अच्छा लगे, कोई करे तरफ़दारी

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