Monday 22 June 2020

रहस्य 
(किसी नए की ओर)


बचपन का एक सपना 
एक बड़ा सा 
बहुत बड़ा सा गोला 
मुझे दबाता था 
हिला-डुला नहीं मैं 
न आँखें खोलीं 
न चिल्लाया 
कोशिश करता, तो भी कुछ न कर पाता था !


म्यार के नीचे का एक बिस्तर 
जिस पर मैं सोता था 
एक मैं,

कितना अच्छा था वो झूठ का गोला 
रात को आता 
दिन में, मैं भूल जाता था 


जब रात पसर जाती है 
मेरे सिरआने एक थका हारा सवाल आकर बैठता है 
इतना सन्नाटा क्यों हैं गलियों में?
लोग ऐसा क्या करते हैं 
सो जाते हैं बेसुध होकर 


उसकी कोई शक्ल, सूरत याद नहीं है 
पर था कुछ 
मुझको बचपन का खौफ़ याद वो ही है 


अब वो गोला बिगड़ गया है 
बिखर गया है 
दिन के उजियारे में फिरता है 
क्यों किसी को उसका खौफ़ नहीं है?


अब मैं बड़ा हो गया हूँ 
उस गोले से दो दो हाथ लड़ूंगा 
आँखें खुली हैं मेरी 
चिल्लाऊंगा अब उस पर 

रात हो या दिन, मैं सोता नहीं हूँ 
मैं जाग रहा हूँ | 

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